आद्य इतिहास लिखते समय इतिहासकार साहित्यिक तथा पुरातात्त्विक दोनों प्रकार के साक्ष्यों का उपयोग करते हैं । इन सभी स्त्रोतों का उपयोग करके इतिहासकार काल विशेष का सही-सही चित्र प्रस्तुत करने का प्रयत्न करता है ।
- पुरातात्त्विक स्त्रोत : प्राचीन भारत के अध्ययन के लिए पुरातात्त्विक स्त्रोतों का विशेष महत्त्व है । उसके प्रमुख तीन कारण हैं :
पहला यह कि भारतीय ग्रथों का रचनाकाल ठीक से ज्ञात नहीं है, इसलिए उनसे किसी काल विशेष की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का ज्ञान नहीं होता ।
दूसरा यह कि साहित्यिक साधनों में लेखक का दृष्टिकोण भी अधिकतर सही व्याख्या करने में बाधक हो जाता है ।
तीसरा यह कि ग्रथों की प्रतिलिपि करने वालों ने अपनी इच्छानुसार अनेक प्राचीन प्रकरणों को छोड़ दिया और नए प्रकरण जोड़ दिये ।
✔ अभिलेख : पुरातात्त्विक स्त्रोतों के अन्तर्गत सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण स्त्रोत अभिलेख हैं । प्राचीन भारत के अधिकतर अभिलेख पत्थर या धातु की चादरों पर खुदे मिले हैं । यद्यपि सभी अभिलेखों पर उनकी तिथि अंकित नहीं है, फिर भी अक्षरों की बनावट के आधार पर उनका काल निर्धारित हो जाता है ।
सबसे प्राचीन अभिलेख अशोक के हैं, केवल भूतपूर्व निज़ाम के राज्य में स्थित मास्की नामक स्थान और गुज्जर्रा (मध्य प्रदेश) से प्राप्त अभिलेखों में अशोक के नाम का स्पष्ट उल्लेख है । अशोक के अधिकतर अभिलेख "ब्राह्मी लिपि" में हैं जिससे भारत की हिन्दी, पंजाबी, बंगाली, गुजराती, और मराठी, तमिल, तेलगु, कन्नड़ आदि सभी भाषाओं की लिपियों का विकास हुआ था ।
केवल उत्तर-पश्चिमी भारत में मिले कुछ अभिलेख "खरोष्ठी लिपि" में हैं । खरोष्ठी लिपि फ़ारसी लिपि की तरह दाईं से बाईं ओर को लिखी जाती थी । ब्राह्मी लिपि को सबसे पहले 1837 में प्रिंसेप नामक विद्वान ने पढ़ा था । इसके अतिरिक्त अशोक के कुछ अभिलेख "अरामाइक लिपि" में हैं ।